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लोकतंत्र 80 प्रश्न और उत्तर

देसराज गोयल

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4597
आईएसबीएन :81-237-1772-5

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भारतीय लोकतंत्र पर आधारित पुस्तक....

Loktantra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


लोकतंत्र क्या है ? हमें इसे महत्व क्यों देना चाहिए ? लोकतंत्र और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच क्या संबंध है ? क्या बहुमत का शासन सदैव लोकतंत्रात्मक होता है ? राजनीतिक पार्टियाँ क्यों जरूरी हैं ? क्या कुछ चुनाव प्रक्रियाएं अन्य की अपेक्षा अधिक लोकतंत्रात्मक हैं ? क्या राष्ट्रवाद और लोकतंत्र या लोकतंत्र और बाजार अर्थव्यवस्था के बीच कोई परस्पर संबंध है ? लोकतंत्र को स्थिर एवं उत्तम कैसे बनाया जा सकता है ? सर्वसाधारण के लिए यह किस प्रकार भिन्न है ? इसका भविष्य क्या है ?

ये ऐसे कुछ एक प्रश्न हैं जो इस पुस्तक में उठाए गये हैं। आज विश्व में लोकतंत्र से जुड़े ऐसे ही 80 अत्यधिक प्रभावी प्रश्नों को एकत्रित करने और उनके स्पष्ट और प्रामाणिक उत्तर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से यूनेस्को ने इस पुस्तक के लेखक को विशेष रूप से यह कार्य सौंपा था। इसका परिणाम एक श्रेष्ठ कृति की सारगर्भिता व्याख्या है। ऐसे लोगों के लिए यह पुस्तक अधिक महत्वपूर्ण है, जो लोकतंत्र को सैद्धांतिक और प्रायोगिक रूप में और अधिक जानने के इच्छुक हैं, चाहे वे छात्र हों; रुचि लेने वाले नागरिक; राजनीतिक कार्यकर्ता या सार्वजनिक क्षेत्रों के कर्मचारी हों, या फिर स्थापित अथवा विकासशील लोकतंत्रात्मक देशों के निवासी हों।

प्रश्नों को छह अनुभागों में योजनाबद्ध तरीके से विभाजित किया गया है : बुनियादी अवधारणाएं तथा सिद्धांत; स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव; खुला एवं उत्तरदायी शासन; व्यक्तिगत अधिकार और उनकी रक्षा; लोकतंत्रीय अथवा नागरिक समाज; लोकतंत्र का भविष्य। लोकतंत्र की संभवतया सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकल्पना का विशिष्ट परिचय इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है। इसे पाठ्यपुस्तक या आधारभूत संदर्भ सामग्री के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
यह पुस्तक यूनेस्कों की लोकतंत्र एवं मानव अधिकार संबंधी शिक्षा योजना के तहत लिखवाई गई है और एक साथ अनेक भाषाओं में प्रकाशित हो रही है।

इस प्रकाशन में जो पद संज्ञाएं इस्तेमाल की गई हैं और सामग्री जिस रूप में प्रस्तुत की गई है उनसे किसी देश, भूखंड नगर या क्षेत्र अथवा उनके सैक्रेटेरियट का किसी रूप में कोई अभिमत प्रकट नहीं होता।
इस पुस्तक में दिए तथ्यों का चयन एवं उनकी प्रस्तुति तथा इसमें व्यक्त विचारों की पूरी जिम्मेदारी लेखकों की है। जरूरी नहीं कि यह प्रस्तुति या विचार यूनेस्को के भी हों और यूनेस्को इनके प्रति प्रतिबद्ध नहीं है।

मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा

अनुच्छेद-21
1.    प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपने देश के शासन में सीधे तौर पर या आजादी से चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से हिस्सा ले।
2.    प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश की सार्वजनिक सेवाओं में शामिल होने का समान अधिकार है।
3.    शासन का अधिकार लोक-इच्छा पर आधारित होगा। यह लोक-इच्छा समय-समय पर कराए गए प्रामाणिक चुनावों के जरिए व्यस्त होगी। ये चुनाव सर्वजनीन तथा समान मताधिकार की बुनियाद पर तथा गुप्त मतदान अथवा ऐसी ही किसी अन्य प्रक्रिया के अनुसार कराए जाएंगे।

टिप्पणी :

उपर्युक्त घोषणा मे ‘उसका’ शब्द महिला तथा ‘पुरुष’ दोनों और आज के संदर्भ में समान रूप से लागू होता है।



भूमिका



नागरिक समाज के व्यवस्थित संचालन के लिए लोकतंत्र के उपयोग का इतिहास लंबा और ऊंचनीच से भरा हुआ है। अपने देश भारत के प्राचीन गणतंत्रों अथवा यूरोप के एथेन्सी लोकतंत्र का इतिहास ही हमें दो हजार वर्ष पीछे ले जाता है और हम देखते हैं कि उस काल के मानव समाज में भी लोकतंत्रीय संस्थाएं किसी-न-किसी रूप में विद्यमान थीं।
मानवीय गतिविधि जैसे-जैसे व्यापक रूप लेती गई, मानव दृष्टि में भी व्यापकता आती गई। नागरिक समाज निर्माण करने की आकांक्षा ने मनुष्य को लोकतंत्र की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया क्योंकि यही ऐसी व्यवस्था है जिसमें सर्वसाधारण को अधिकतम भागीदारी का अवसर मिलता है। इससे केवल निर्णय करने की प्रक्रिया ही में नहीं अपितु कार्यकारी क्षेत्र में भी भागीदारी उपलब्ध होती है। अपने विकास क्रम के विभिन्न चरणों में लोकतंत्र ने भिन्न-भिन्न परिस्थितियों को अन्यान्य मात्रा में सुनिश्चित करने का प्रयास किया है।

हमारे देश में स्वतंत्रता संग्राम से लोकतंत्र को बेहद प्रोत्साहन मिला। कारण कि इस संग्राम का आधार मुख्यतया विशाल सामान्य जन की सक्रिय भागीदारी थी। यह हथियारों से किसी छोटे से गुट तक सीमित नहीं था। विदेशी साम्राज्य से मुक्ति पाने के लिए संग्राम की इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से हमें लोकतंत्रीय गणतंत्र स्थापित करने की प्रेरणा मिली। परिणामतया गणतंत्र के उद्घाटन के साथ ही साथ व्यस्क मताधिकार और प्रतिनिधि शासन का भी प्रादुर्भाव हुआ। यह एक ऐसी उपलब्धि है जिसकी प्राप्ति के लिए अन्य देशों को जो अपेक्षाकृत अधिक विकसित हैं, शताब्दियां लग गईं।
हमने लोकतंत्र का जो प्रयोग किया है, उससे कई प्रकार की सीख मिल सकती हैं। पहली तो यह कि क्या केवल मताधिकार से वैसा बहुमत का शासन स्थापित हो जाता है जिसका आश्वासन लोकतंत्र से अपेक्षित है ? हमारे संविधान में जिस चुनाव विधि का प्रावधान है उसके अनुसार किसी चुनाव क्षेत्र में सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले को विजयी घोषित कर दिया जाता है। इसका
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यह भूमिका प्रकाशक द्वारा पुस्तक के भारतीय संस्करण में जोड़ी गई है।
अनिवर्यातया यह अर्थ नहीं कि जिसको सबसे अधिक मत मिले हैं, उसको मतदाताओं के बहुमत का समर्थन भी प्राप्त है। यह भी संभव है कि जिन्होंने मतदान किया है, उनका उस क्षेत्र विशेष में बहुमत ही न हो।

हमारे निर्वाचित शासन की इस प्रकार की कमजोरियों पर देश भर में निरतंर चर्चा चलती रहती है। चुनाव प्रक्रिया में सुधार की जो मांग उठ रही है, वह अपने ही देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के सजीव अनुभव से उभरी है। इसी प्रकार, चुनाव में लोकतंत्रीय तत्व कमजोर हो जाता है। इस प्रकार हमारे देश के लोकताँत्रिक प्रयोग की जांच-पड़ताल वही लोग निरंतर करते रहते हैं जो इसका संचालन कर रहे हैं। लोकतंत्रीय पद्धति के और भी बहुत से पक्ष हैं जिन पर गहन विचार चलता है। अन्य पक्षों के अतिरिक्त प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार पर भी विचार होता है। अपने लोकतंत्रीय संविधान के प्रहरी के रूप में न्यायपालिका की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है।

हमारे देश के बहुमुखी नागरिक समाज की गतिविधियों के फैलाव को देखते हुए लोकतंत्रीय व्यवस्था का क्षेत्र अधिक व्यापक करने की आवश्यकता भी बहुत लोग महसूस करते हैं। इस दृष्टि से पंचायत व्यवस्था का प्रवेश हमारे लोकतंत्र के विकास में मील के पत्थर के समान है। इससे लोकतंत्रीय व्यवस्था निम्नतम स्तर पर भी पहुंच जाती है। भारतीय लोकतंत्र की यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण देन है। इससे हमारे लोकतंत्र को चिरस्थायी आधार मिलेगा। इस विशाल भूखंड के कोने-कोने में फैले हुए सभी गांव इस लोकतंत्रीय नागरिक समाज के संचालन में भागीदार हो जाएंगे।

लोकतंत्र के हमारे पांच दशकों के व्यापक अनुभव से बहुत दूरगामी परिणाम निकाले जा सकते हैं। अन्य मानव समाजों की भांति हमें भी ध्यान रखना होगा कि मात्र लोकतंत्रीय ढांचा बना लेने से नागरिक समाज में सच्चा लोकतंत्र सुनिश्चित नहीं होता। आर्थिक दृष्टि के सुविकसित देशों के अनुभव से भी यही जाहिर होता है कि एक सीमा तक सामाजिक आर्थिक न्याय के अभाव में लोकतंत्र सच्चा नहीं कहा जा सकता। यदि एक ओर ऊंची अट्टालिकाओं की सुख समृद्धि हो और दूसरी ओर झुग्गी झोपड़ी का दुख और कष्ट से भरा जीवन तो सच्चे अर्थों में लोकतंत्र नहीं बन सकता। हमारे जैसे विकासशील देशों में यह विषमता और अधिक भीषण रूप में सामने आती है क्योंकि यहां सर्वसाधारण की बहुसंख्या को गरीबी और कंगाली से पाला पड़ता है।
यह हमारे युग की मुंह-बोलती विडंबना है कि ऐसे समय में, जब विज्ञान और तकनीक का विलक्षण विकास मनुष्य को आकाश की ऊंचाइयों में पहुंचा रहा है, जब मेधावी मानव वंश प्रारूप (जीन) की अदला-बदली के प्रयोग करने को उद्यत है, तो धरती के अधिकतर निवासी गरीबी और अभाव का शिकार हैं। जब तक इस विषमता का अंत नहीं किया जाता, नागरिक समाज लोकतंत्रीय कहलाने का हकदार नहीं बन सकता। यह चुनौती है आज लोकतंत्र प्रेमी मानव समाज के सामने।

इस पुस्तक में लोकतंत्रीय व्यवस्था के विभिन्न पक्षों को सरल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। लोकतंत्र के अध्ययन से उठने वाले अन्यान्य प्रश्नों का उत्तर पाने में इससे भरसक सहायता मिल सकती है। ऐसी सुंदर पुस्तक लोकतंत्र के निर्माण से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुमूल्य सहयोगी है।

-निखिल चक्रवर्ती




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